पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५९४

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. ५८० बृहदारण्यकोपनिषद् स० भावार्थ। यह सुनकर मैत्रेयी बोली कि, हे भगवन् ! श्राप कृपा करके बतायें कि यदि सब पृथिवी धन धान्यादि करके परित होती हुई मेरेही हो जाय तो क्या उस करके मैं मुक्त हो जाऊंगी ? यह सुनकर याज्ञवल्क्य महाराज ने कहा कि तुम धन आदि के पाने से मुक्त नहीं हो सकती हो, हां जैसे धनाढ्यादि अपना जीवन करते हैं उसी प्रकार तुम्हारा भी जीवन होगा परन्तु मुक्ति की श्राशा धन करके नहीं हो सकती है ॥ ३ ॥ मन्त्रः४ सा होवाच मैत्रेयी येनाई नामृता स्यां किमहं तेन कुर्या' यदेव भगवान्वेद तदेव मे बृहीति ।। पदच्छेदः। सा, ह, उवाच, मैत्रेयी, येन, अहम् , न, अमृता, स्याम् , किम् , अहम् , तेन, कुर्याम् , यत् , एव, भगवान् , वेद, तत् : एव, मे, ब्रूहि, इति ॥ अन्वय-पदार्थ। ह-तव । सा=बह । मैत्रेयी-मग्रेयी । उचाच-बोली कि । येन-जिस धन से। अहम् मैं । अमृता-मुन । न-नहीं. स्याम्हो सकती हूं । तेन उस धन को। अहम् मैं । किम्- क्या । कुर्याम् करूंगी । भगवान् श्राप । यत्-जिम वस्तु को । एवम्भली प्रकार :। वेद-जानते हैं । तत् एव-उसही को । मे मेरे लिये । हि इति-उपदेश करें। !