अध्याय ब्राह्मण ४ ५७५ है उसी को मन्त्र भी कहता है, हे राजन् ! ब्रह्मवित् पुरुष की पूर्वोक्त महिमा स्वाभाविक है, वह महिमा कर्म से न बढ़ती है न अल्प होती है, वह ब्रह्मवेत्ता पापकर्म से लिप्त नहीं होता है, वह शान्त, दान्त, उपरत, तितिक्षु और समाहित चित्त होकर अपनेही में अपने आत्मा को देखता है और जब सब जंगत् को अपनाही आत्मारूप देखता है तब वह ज्ञानी सब पाप को पार कर जाता है, उस ज्ञानी को पाप नहीं तपाता है किन्तु वह ज्ञानी सब पाप को नष्ट कर देता है, वह ब्रह्मवित् पुरुष पापरहित, धर्मरहित होजाता है, हे जनक ! यही ब्रह्मलोक है, इसी लोक को आप पहुँचाये गये हैं; ऐसा सुनकर जनक महाराज बोले कि, हे प्रभो ! मैं श्राप के लिये कुल विदेह देशों को और साथही साथ अपने को भी सेवा के लिये अर्पण करता हूं ॥२३॥ मन्त्रः २४. स वा एष महानज आत्मान्नादो वसुदानो विन्दते वसु य एवं वेद ॥ पदच्छेदः। सः, वा, एषः, महान्, अजः, आत्मा, अन्नादः, वसुदानः, विदन्ते, वसु, यः, एवम् , वेद ।। अन्वय-पदार्थ। सावही । एषः यह प्रात्मा । महान् सर्वोत्कृष्ट। अजः अजन्मा । अन्नाद:-अनमोक्का । वसुदान:: कर्मफल दाता है। एवम्-इस प्रकार । याजो। वेद-आनता है। + सा-वह ज्ञानी | वसु-धन को। विन्दते प्राप्त होता है। . .
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