५७२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० संन्यासी लोग इसी आत्मा के उपदेश को पाकर मुक्का त्याग कर देते हैं और इसी संन्यस्त धर्म के लिये ही पूर्व- काल के विद्वान् लोग संतान की इच्छा नहीं करते थे, यह कहते हुये कि हम संतान लेकर क्या करेंगे, जब हम लोगों का सहायक अपना ही आत्मा है और यही कारण था कि वे लोग पुत्र को इच्छा नहीं करते थे। द्रव्य की इच्छा से, पुत्र की इच्छा से, लोकों की उच्छा से विरक्त होकर केवल भिक्षानिमित्त विचरा करते ये, हे राजा जनक ! जो पुत्र की कामना है वही धन की कामना है, वही लोक की कामना है इन तीनों कामनाओं से यह आत्मा पृथक् है. नेति नेति शब्द करके अग्राह्य है क्योंकि यह ग्रहण नहीं किया जा सक्ता है, यह अहिंसनीय है क्योंकि मारा नहीं जा सक्ता है, यह असङ्ग है क्योंकि यह किसी वस्तु में आसक्त नहीं है, यह बन्धनरहित है क्योंकि वह पीड़ित नहीं होता है, न हत होता है। यह वृत्ति कि मैंने पार किया था इस लिये मैं दुःख भोगूंगा, मैंने पुण्य किया था मैं सुख भोगूगा इस आत्मा को नहीं लगती है। यह प्रात्मा अवश्य इन दोनों इच्छाओं को पार कर जाता है और ब्रह्मवित् पुरुष को कृताकृत कम नहीं सताता है ।। २२ ।। मन्त्रः २३ तदेतहचाभ्युक्तम् । एप नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न वर्धते कर्मणा नो कनीयान् । तस्यैव स्यात्पदवित्तं विदित्वा न लिप्यते कर्मणा पापकेनेति । तस्मादेवं विच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिनुः समाहितो भूत्वात्म- . . .
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