अध्याय ४ ब्राह्मण ४ ५७१ हि-क्योंकि । सः न वह नहीं। सज्यते-किसी में प्रासन है। असितःवह बन्धनरहित है । हि-क्योंकि । सः नवह नहीं । व्यथतेचीड़ित होता है । च-और । नन । + सः वह । रियति इत होता है। उौर । पापम्म्याप । अकर- वम् मैंने किया था । अतः इस लिये दुःख भोगूगा । कल्याणम्-भुण्य मैंने किया था ।अतः इसलिये सुख भोगूगा। इति ऐसे । एतेन्थे । उभे-दोनों इच्छायें । एतम्-इस श्रात्मा को। न एव नहीं । तरतः हम्लगती हैं । एषः उ हन्ग्रह प्रात्मा । एव-अवश्य । तरति इन दोनों इच्छाओं को पार कर जाता है । एनम् इस ब्रह्मवित् को । कृताकृते कृताकृत कर्म । नम्नहीं । तपतः सताते हैं। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, जो आत्मा चक्षुरादि इन्द्रियों में चैतन्यरूप से स्थित है और जो हृदय के आकाश विषे शयन किये है वही अति बड़ा है, अजन्मा है, सबको अपने वश में रखनेवाला है, वही सबका शासन करनेवाला. है, वही सबका अधिपति है, वही न अच्छे करके पूज्य होता है, न बुरे कर्म करके अपूज्य होता है, वही सबका ईश्वर है, वही सब भूतों का मालिक है, वही सबका पालक है, वही यह आत्मा सबका पार लगानेवाला सेतु है, वही लोकों की रक्षा के लिये उनका धारण करनेवाला है, उसी आत्मा को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वेदाध्ययन करके, यज्ञ करके, दान करके, तप करके, अनशन व्रत करके जानने की इच्छा करते हैं और जो उसको जान जाता है वह मुनि कहलाता है, वहीं ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है, .
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