बृहदारण्यकोपनिषद् स० मन्त्रः १६, यस्मादक्सिंवत्सरोऽहोभिः परिवर्त्तते । तद्देवा ज्यो- तिषां ज्योतिरायुहोपासतेऽमृतम् ।। पदच्छेदः। यस्मात् , अर्वाक्, संवत्सरः, अहोभिः, परिवर्त्तते, तत् , देवाः, ज्योतिषाम् , ज्योतिः, आयुः, ह, उपासते, अमृतम्॥ अन्वय-पदार्थ । यस्मात्-जिस पात्मा के । अर्वाक्-पोछे । अहोभिः दिन रात से संयुक्त । संवत्सरः संवत्सर । परिवर्त्तते-फिरा करता है । + या=जो । ज्योतिपाम् ज्योतियों का । ज्योतिः- ज्योति है । अमृतम्-मरण धर्म रहित है । आयुः प्राणीमात्र को श्रायु का देनेवाला है । तत् इति-उस ऐसे ब्रह्म का । देवा विद्वान् । उपासते-उपासना करते हैं। भावार्थ । हे राजा जनक ! जिस आत्मा के पीछे पीछे दिन रात संयुक्त संवत्सर फिरा करता है, और जो ज्योतियों का ज्योति है, और मरणधर्मरहित है और जो प्राणीमात्र को आयु देनेवाला है, उसी ऐसे ब्रह्म की उपासना विद्वान् लोग करते हैं ।। १६ ॥ मन्त्रः १७ यस्मिन्पश्च पञ्चजना आकाशश्च प्रतिष्ठितः । तमेव मन्य आत्मानं विद्वान्ब्रह्मामृतोऽमृतम् ।।
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