५६० बृहदारण्यकोपनिषद् स० निदिध्यासन के द्वारा विचारवान् हुआ है वही सब कार्यों का करनेवाला है और वही सबका कर्ता है उसी का यह लोक है और वही लोकस्वरूप भी है जो कुछ दृश्यमान है सब उसी का रूप है ॥ १३ ॥ मन्त्र: इहैव सन्तोऽथ विद्मस्तद्वयं न चेदवेदिहती विनष्टिः। ये तद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापियन्ति । पदच्छेदः। इह, एव, सन्तः, अथ, विद्मः, तत् , वयम् , न, चेत्, अवेदिः, महती, विनष्टिः, ये, तत्, विदुः, अमृताः, ते, भवन्ति, अथ, इतरे, दुःखम् , एव, अपियन्ति ॥ अन्वय-पदार्थ । + याज्ञवल्क्याच्याज्ञवल्क्य महाराज । + वदति-कहते हैं + यदि-अगर । इह-इसी । एव-शरीर में । वयम्-हम लोग । सन्तारहते हुये । तत्-उस ब्रह्म को । विद्या मान लेवें। अथ तो । सत्यम् ठीक है । चेत्-अगर । तत्-उस ब्रह्म को। वयम्-हम लोग। नन्न । विना-जानें । अथ-तो। अवेदि:- हम लोग अज्ञानी रहेंगे । + तदा-तब । अस्मिन्-इसमें । महतीबड़ी। विनष्टिाहानि होगी । ये जो लोग । तत् उस ब्रा को । विदुः जानते हैं। ते वे। अमृताः भवन्ति- अमर होजाते हैं । अथ और । इतरे-उनसे.पृथक् अज्ञानी । दुःखमू-दुःख को । एव-ही । अपियन्ति-प्राप्त होते हैं । भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक! अगर - .
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