५५८ बृहदारण्यकोपनिषद् स० भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! वे योनि अनन्द नाम करके प्रसिद्ध हैं जो अन्धकार तम करके आवृत हैं, उन्हीं लोकों को वे साधारण अविद्वान् अज्ञानी मरकर प्राप्त होते हैं ॥ ११ ॥ मन्त्रः १२ आत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मीति पूरुषः। किमिच्छ- न्कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत् ॥ पदच्छेदः। आत्मानम्, चेत्, विजानीयात्, अयम्, अस्मि, इति, पूरुषः, किम्, इच्छन्, कस्य, कामाय, शरीरम् , अनुसंज्वरेत् ॥ अन्वय-पदार्थ। अयम्-यह श्रेष्ठ । पूरुषः आत्मा । अहम्-मैं । अस्मि-हूँ। इति-इस प्रकार । श्रात्मानम्-उस श्रात्मा को । चेत्-अगर । +कश्चित् कोई । विजानीयात् जान लेवे तो। किम्-क्या । इच्छन्-इच्छा करता हुधा । च-और । कस्य-किस पदार्थ की। कामाय-कामना के लिये । शरीरम् शरीर के पीछे । अनुसंज्वरेत् दुःखित होगा । भावार्थ। योज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे जनक ! सब पुरुषों को यह ज्ञात है कि मैं हूँ पर अपने रूप का यथार्थ ज्ञान उनको नहीं है, यदि अपने स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो कि मैं ही ब्रह्म हूँ, तब वह ब्रह्मवित् पुरुष किस पदार्थ की
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