अध्याय ४ ब्राह्मण ४ ५४९ मन के अन्दर रहने से मनोमय है, प्राणादिकों में रहने से प्राणमय है, चक्षुविशिष्ट होने के कारण चतुमय है, श्रोत्र- विशिष्ट होने के कारण श्रोत्रमय है, गन्धविशिष्ट होने के कारण घ्राणमय है, जलविशिष्ट होने के कारण आपोमय है, वायुविशिष्ट होने के कारण वायुमय है, आकाश में रहने के कारण श्राकाशमय है, तेत्र में रहने के कारण तेजमय है, वही तेजरहित भी है, क्रोध से भरा है, क्रोधरहित भी है, धर्म से पूर्ण है, धर्मरहित भी है, वही सर्वमय है यानी जो कुछ है वह उसी में है, जिस कारण यह जीवात्मा इस लोक की सब वासनाओं करके वासित है, और परलोक की वासनाओं करके वासित है, इसी कारण यह आत्मा सर्वमय है, जिस प्रकार यह जीवात्मा कर्मों को करता है, और जिस प्रकार आचरणों को करता है, वैसे ही वह होता है यानी अच्छे कर्मों का करनेवाला साधु हो जाता है, और पाप कर्मों का करनेवाला पापी हो जाता है, पुण्यकर्ता पुण्यवान् बनता है, पापकर्त्ता पापी बनता है, कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि यह जीवात्मा काममय है, इसी कारण वह जैसी इच्छावाला होता है वैसा ही उसका श्रम होता है, और जैसा ही श्रमवाला होता है वैसा ही कम करता है, और जैसा कर्म करता है वैसा फल पाता है ॥ ५ ॥ सन्त्रः६ तदेप श्लोको भवति । तदेव सक्तः सह कर्मणैति लिझं मनो यत्र निपतमस्य । प्राप्यान्तं कर्मणस्तस्य यत्किंचेह करोत्ययम् । तस्माल्लोकात्पुनरेत्यस्मै लोकाय
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