बृहदारण्यकोपनिषद् स० कहा जाता है । + साचही मुख्य प्राण । पांगिरस:-प्रांगरम भी। + कथ्यतेन्कहा जाता है। हि-क्योंकि + साया । अंगानाम्-अंगों का । रसाधारमा हैं। भावार्थ । हे सौम्य ! तब वे देवता आपस में कहने लगे कि वह जिसने हमारी इस प्रकार रक्षा की है कहाँ है, इस प्रश्न के उत्तर में उनमें से किसी ने कहा कि जिसन हमारी ऐसी रक्षा की है वही प्राण है, वही मुख के अन्तर सदा निवास करता है, इसीलिये वह मुख्य प्राण मुख से उत्पन्न हुया कहा जाता है, और आङ्गिरस भी कहा जाता है, क्योंकि वह अंगों का आत्मा है |॥ ८ ॥ मन्त्रः सा वा एषा देवता दूर्नाम दूर ५ ह्यस्या मृत्युदर ५ ह वा अस्मान्मृत्युभवति य एवं वेद ।। पदच्छेदः। सा, वा, एषा, देवता, दूः, नाम, दूरम् , हि, अत्याः, मृत्युः, दूरम् , ह, वा, अस्मात् , मृत्युः, भवति, यः, एवन्, वेद ॥ अन्वय-पदार्थ । सा-वही । वा-निश्चय करके । एपा-यह । देवता-देवता । दूर-दूर । नाम-नाम करके प्रसिद्ध है । हि-ज्योकि । अस्था:- इस प्राण देवता के पास से । मृत्युः-पापसंसृष्ट मृत्यु । दूरम् दूर रहता है । यःजो उपासक । एवम्-इस तरह । वेद-जानता है। अस्मात् उस उपासक से । ह वा-प्रवश्य । मृत्युः पाप- रूप मृत्यु । दूरम्-दूर । भवति-रहता है । . - 1
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