पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५५८

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५४४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० अयम्=यह । श्रात्मा जीवात्मा । इदम् इस । शरीरम् जर्जर शरीर को । निहत्यअचेतन बनाकर । + च-और । अविद्याम् गमयित्वा स्त्रीपुत्रादिक वियोगजन्य शोक को दूर 'करके । अन्यम् और दूसरे । अाक्रमम्-शरीर को। श्राक्रम्य- आश्रय करके । आत्मानम्-अपने वर्तमान देह को । उपसंह- रति छोड़ता है। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! यह जीवात्मा किस तरह एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होता है, इस विषय में जो दृष्टान्त लोग देते हैं उसको सुनो मैं कहता हूं, हे राजन् ! जैसे तृणजलौका कीड़ा उस तृण के ऊपर जिसके ऊपर वह चढ़ा रहता है जब उसके अंतिम भाग को पहुँचता है तब दूसरे तृण को जो उसके सामने रहता है पकड़ कर अपने शरीर को संकोचकर उस अगले तृण पर जाता है उसी प्रकार यह जीवात्मा अपने जर्जर शरीर को अचेतन बनाकर और स्त्री पुत्रादिक वियोगजन्य शोक को दूर करके दूसरे शरीर को आश्रय लेता हुआ अपने वर्तमान देह को छोड़ता है ॥ ३ ॥ मन्त्रः ४ तद्यथा पेशस्कारी पेशसो मात्रामपादायान्यन्नवतरं कल्याणतरछ रूपं तनुत एवमेवायमात्मेदछ, शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वान्यन्नवतरं कल्याणतरछ रूपं कुरुते पित्र्यं वा गान्धर्व वा दैवं वा प्राजापत्यं वा ब्राह्म वाज्येषां वा भूतानाम् ।।