अध्याय ४ ब्राह्मण ४.. ५४.३ जीवात्मा नेत्र से अथवा मस्तक से अथवा और इन्द्रियों की राह से निकल जाता है, और उसके निकलने पर उसी के पीछे पीछे प्राण भी चल देता है, और प्राण के पीछे सब इन्द्रियां चल देती हैं, तब यह जीवात्मा ज्ञानी होता हुआ विज्ञानस्थान को जाता है, और उसके पीछे विद्या, कर्म, ज्ञान सब चल देते हैं ॥ २ ॥ , M मन्त्रः ३ तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वान्यमाक्रममा- क्रम्यात्मानमुपसछहरत्येवमेवायगात्मेदछशरीरं निहत्या- विद्यां गमयित्वान्यमाक्रममाक्रम्यात्मानमुपसछहरति । पदच्छेदः । तत् , यथा, तण जलायुका, तृणस्य, अन्तम्, गत्वा, अन्यम् , आक्रमम् , अाक्रम्य, श्रात्मानम् , उपसंहरति, एवम् , एव, अयम् , अात्मा, इदम् , शरीरम् , निहत्य,. अविद्याम् , , गमयित्वा, अन्यम् , अाक्रमम् , आक्रस्य, आत्मानम्, उपसंहरति । अन्वय-पदार्थ। तत्-पुनदेह के प्रारम्भ में । + दृष्टान्तः दृष्टान्त है कि । यथा जैसे । तृणजलायुका-तृणजलायुका कीड़ा । तृणस्य- तृण के । अन्तम्-अन्तिम भाग को । गत्वा-पहुँच कर । अन्यम्-दूसरे । श्राक्रमम्-तृण के । श्राक्रम्य-आश्रय को पकड़ । श्रात्मानम्-अपने को । उपसंहरति-संकोच कर अगले तृण पर जाता है । एवम् एव-उसी प्रकार ।
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