पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५४७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय ४ ब्राह्मण ३ पदच्छेदः। तत्, यथा, अनः, सुसमाहितम्, उत्सर्जत् , यायात्, एवम्, एव, अयम् , शारीरः, आत्मा, प्राज्ञेन, आत्मना, अन्वारूढः, उत्सर्जन्, याति, पत्र, एतत्, ऊर्बोच्वासी, भवति ॥ अन्वय-पदार्थ । तत्-शरीर त्यागने के विषय में । + दृष्टान्ताग्रह दृष्टान्त है कि । यथा जैसे । सुसमाहितम्-अनादिक बोझ से लदी हुई । अनः-गाड़ी । उत्सर्जत्-त्रौंचों शब्द करती हुई । यायात्-जाती है । एवम् एव उसी प्रकार । शारीर: शरीर सम्बन्धी । प्रात्मानीवारमा।प्राशेन आत्मना-अपने ज्ञान से। अन्वारूढः संयुक्त । उत्सर्जन् देह को छोड़ता हुश्रा । याति- जाता है । यत्र-जव । एतत्-वह । ऊर्बोच्वासी-ऊर्ध्वश्वासी। भवति होता है। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! शरीर के त्यागने के विषय में लोक यह दृष्टान्त देते हैं कि जैसे अन्नादिक के बोझ से लदी हुई गाड़ी मार्ग में चींची शब्द करती हुई जाती है उसी प्रकार शरीरसम्बन्धी जीवात्मा ज्ञानस्वरूप अपने शुभ अशुभ कर्म के भार से संयुक्त होता हुया वियोगकाल में रोता हुआ जाता है ॥ ३५ ॥ मन्त्र: ३६ स यत्राऽयमणिमानं न्येति जरया वोपतपता वाणि- मानं निगच्छति तद्यथानं वोदुम्बरं वा पिप्पलं वा