। ३८ बृहदारण्यकोपनिषद् ग. का गान कर तथा इनियत शरछा। इति-पमा +उपन्या- कहकर । एषः यही । प्रागः मुग्य प्राय नेभ्यः न देना के लिये । उदगायत्-गान करना भया । +नदागर । नेम्ये थसुर । विदुःजानने भये कि । अनन-म । उगाना-प्रादेश उद्गाता की सहायता करके । न: हमारे पर । दी। प्रत्येप्यन्ति-अतिक्रमण करेंगे । तिमग्निगे। नत-ग प्राणदेव उद्गाता के । अभिनुन्यसामने सायर ! +न्चन% अपने । पाप्मना-पाप ना करके । + नमःमकी। वि. व्यत्सन्-वेधने की इच्छा करने भये । तदा । यशाम। सा=वह । लोटः मही का टेन्ना । श्रश्मानमार पर। ऋत्वागिरकर । विध्वंसत नष्ट हो जाना है। एवम द एय%3D तिसी प्रकार । + असुरा:-यमुर । विप्यंत्रःपर उधर भागने हुये । विध्वंसमाना:-पृथक पृथक् होकर । यिनशु:न होने भये । ततः तिसी कारण । + तेचे । देवताःगना । अभवन् पहिले की तरह प्रकाशमान होते भये यानी जानने भये। + किंच-और । अमुरा:-धनुर । पराम्परान । अभवन होने भये । यःजी उपासक । एवम्मा । वेद-ज्ञानमा । अस्य-उसका । द्विपत्-द्वेप करनेवाला । भ्रातृयामाग्रु । आत्मना-उस प्रजापति करके जो उसका स्वरूप हो गया है। पराभवति-नष्ट हो जाता है। भावार्थ । हे सौम्य ! तदनन्तर वे सब देवता मुख्य प्राण से करने लगे कि हे प्राण ! तू हमारे कल्याणार्थ उद्गाता बनकर उन्द्रीय का गान कर, उसने कहा बहुत अच्छा, ऐसा कहकर यह मुख्य प्राण देवताओं के लिये उद्गीथ का गान करता भया, तब वे असुर जान गये कि इस प्राणदेव उद्गाता की सहायता
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।