५२४ बृहदारण्यकोपनिपद् स० जानता है, सो ठीक नहीं हैं, यह जीवात्मा उस अवस्था में भी विद्यमान रहता है, और उसकी ज्ञानशक्ति भी विद्यमान रहती है, और जीवात्मा के अविनाशी होने के कारण उसकी ज्ञानशक्ति भी नाशरहित होती है, इसलिये वह जान सक्ता है परन्तु जब कोई ज्ञयविपय वहां नहीं है तो किस वस्तु को वह जीवात्मा जाने ।। ३० ॥ मन्त्र: ३१ यत्र वा अन्यदिव स्यात्तत्रान्योऽन्यत्पश्यदन्योऽन्य- जिघ्रदन्योऽन्यद्रसयेदन्योऽन्यदेदन्योऽन्यच्छृणुयादन्यो- ऽन्यन्मन्बीतान्योऽन्यत्स्पृशेदन्योऽन्यद्विजानीयात् ।। पदच्छेदः। यत्र, वा, अन्यत् , इव, स्यात् , तत्र, अन्यः, अन्यत्, पश्येत् , अन्यः, अन्यत् , जिघ्रत् , अन्यः, अन्यत् , रसयेत्, अन्यः, अन्यत् , वदेत्, अन्यः, अन्यत् , शृणुयात्, अन्यः, अन्यत् , मन्वीत, अन्यः, अन्यत्, स्पृशत् , अन्यः, अन्यत् , विजानीयात् ॥ अन्वय-पदार्थ। यत्र =जिस जागरित और स्त्रम अवस्था में । + प्रात्मनः प्रात्मा से । अन्यत् इव-अतिरिक्त और कोई वस्तु । स्यात् होवे तो । तत्र-उस अवस्था में । अन्या-अन्य पुरुप अन्यत्-अन्य वस्तु को । पश्येत् देखे । अन्यान्य पुरुष । अन्यत्-अपने से अन्य वस्तु को । जिघ्रत्-सूधे । अन्यः अन्य पुरुप । अन्यत्-अन्य वस्तु का । रसयेत्स्वाद लेवे । अन्या अन्य पुरुप । अन्यत्-अन्य को । वदेत् कहे । अन्या-अन्य 1
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