अध्याय ४ ब्राह्मण ३ ५२१. मानते हैं । तत्सो | + न-नहीं । + यथार्थ: ठीक है । + सा-वह जीवात्मा । वै-निश्चय करके । मन्वाना मनन करता हुआ । ननहीं । मनुते-मनन करता है । हि-क्योंकि । मन्तुमन्ता जीवात्मा की । मतेः मननशक्ति का । विपरि- लोपः नाश । अविनाशित्वात्-प्रात्मा के अविनाशी होने के कारण । न-नहीं। विद्यते-होता है । तु-परन्तु । तत्-उस सुपुप्तावस्था में । ततः उससे । अन्यत्-और कोई । विभ- कम्-पृथा । द्वितीयम्-दूसरी वस्तु । न-नहीं है । यत्-जिसको। + सा-वह । मन्वोत-मनन करे । भावार्थ याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि हे राजा जनक ! अगर आप ऐसा मानते हैं कि जीवात्मा सुपुप्ति अवस्था में नहीं मनन करता है सो ठीक नहीं, यह जीवात्मा उस अवस्था में भी विद्यमान रहता है, और उसकी मननशक्ति भी विद्य- मान रहता है, और जीवात्मा के अविनाशी होने के कारण उसकी मननशक्ति भी नाशरहित होती है, इसलिये वह मनन कर सकता है, परन्तु जब कोई मन्तव्य विषय वहां नहीं है तो वह किसको मनन कर ॥२८॥ मन्त्रः २६ यदै तन्न स्पृशति स्पृशन्वै तन्न स्पृशति न हि स्पष्टुः स्पृष्टेविपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यत्स्पृशेत् ।। पदच्छेदः। यत्, वै, तत्, न, स्पृशति, स्पृशन् , वै, तत्, न, स्पृशति,
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