नहीं सुनता ५२० वृहदारण्यकोपनिषद् स० उसपे । अन्यत्-और कोई । विभक्कम-पृथक् । द्वितीयम् दूसरी वस्तु । न-नहीं है । यन्=जिसको । + सः वह । गृणुयात्-सुने । भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! अगर आप ऐसा मानते हैं कि जीवात्मा सुषुप्ति अवस्था में है सो ठीक नहीं है, यह जीयारमा उस अवस्था में भी विद्यमान रहता है, और उसकी श्रवणशक्ति भी विद्यमान रहती है, और जीवात्मा के अविनाशी होने के कारण उसकी श्रवणशक्ति भी नाशरहित होती है, इसलिये वह सुन सक्ता है परन्तु जब कोई श्रवण का यहां विषय नहीं है तो किसको वह जीवात्मा श्रवण करें ॥ २७ ॥ मन्त्रः २८ यदै तन्न मनुने मन्वानो वै तन्न मनुने न हि मन्तुर्मने. विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्धिनीयमस्ति ततोऽन्यविभक्तं यन्मन्बीत ॥ पदच्छेदः। यत् , 3, तत्, न, मनुने, मन्धानः, वै, तत्. न. मनुते, न, हि, मन्तुः, मतः, विपरिलोपः, विद्यन, अविनाशित्वात् , न, तु, तत् , द्वितीयम् , अस्ति, ततः, अन्यत्, विभक्तम् : यत्, मन्चीत ॥ अन्वय-पदार्थ। + सा वह जीवात्मा। तत्-उस सुपुप्तावस्था में । नन्नहीं। मनुते मानता है । यत्-जो । इत्ति-ऐसा । + मन्यसे-माप
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