५१४ बृहदारण्यकोपनिषद् स. पदच्छेदः। यत्, वै, तत्, न, पश्यति, पश्यन् , वै, तत् , न, पश्यति, न; हि, द्रष्टुः, दृष्टेः, विपरिलोपः, विद्यते, अविना- शित्वात् , न, तु, तत्, द्वितीयम् , अस्ति, ततः, अंन्यत्, विभक्तम् , यत्, पश्येत् ।। अन्वय-पदार्थ । + सावह जीवात्मा। तत्-उस सुपुप्तावस्था में। न-नहीं। पश्यति-देखता है । यत्-जो । इति-ऐसा । + मन्यसे श्राप मानते हैं। तत्-सो।+न-नहीं। + यथार्थः ठीक है। + स:वह जीवात्मा । वै-निश्चय करके । पश्यन् देखता हुा । न-नहीं। पश्यति देखता है यानी वह अपने को और अपने साथियों की देखता है औरों को नहीं देखता है। हि-क्योंकि । द्रष्टुः देखनेवाले जीवात्मा की दृष्टे दर्शन शक्ति का। विपरिलोपा नाश । अवि- नाशित्वात् अविनाशी होने के कारण। न-नहीं। विद्यते-होता है। तु-परन्तु । तत्-उस सुपुतिअवस्था में । ततः उससे । अन्यत्-और कोई । विभक्तम्-पृथक् । द्वितीयम्-दूसरी वस्तु । न-नहीं है। यत्-जिसको । साबह.। पश्येत् देखे । भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे जनक ! आप ऐसा मानते हैं कि जीवात्मा सुपुप्ति अवस्था में नहीं देखता है सो ठीक नहीं है, यह आत्मा उस अवस्था में भी देखता हुआ विद्यमान है, यानी जो उसका स्वरूप आनन्द है, और अज्ञान जिस करके वह आवृत है दोनों को अनुभव करता है, क्योंकि जब सो करके पुरुष उठता है तब पूछने पर कहता है कि ऐसा आनन्द से सोया कि खबर न रही, यदि उसको
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