५१२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० अन्वय-पदार्थ । अत्रगाढ़ी सुपुप्ति में। पिता-पिता । अपिता भवति-पितृ सम्बन्ध से मुक्त होता है। माता-माता । श्रमाता + भवति- मातृसम्बन्ध से मुक्त होनी है। लोकाः=अमिलपित लोक। अलोकाः + भवन्ति प्रलोक हो जाते हैं यानी किली स्वर्गादि- लोक की इच्छा नहीं रहती है। देवाः देवना। अदेवा:-प्रदेवता होजाते हैं यानी किसी देवता का धाश्रय नहीं रहता है । वेदा: वेद । अवेदाः भवन्ति-घचेद हो जाते हैं यानी वेद पढ़ने की इच्छा नहीं रहती है। अत्र इस अवस्था में । स्तेना-चोर । अस्तेनः प्रचोर । भवति हो जाता है । भ्रणहा-गर्भपातकी । अभ्रूणहा + भवतिन्नगर्भपातकी हो जाता है। चागडाल:= महानीच पतित चाण्डाल भो । अचाण्डालायचाएडान । + भवति-हो जाता है । पोरकसः शुद्र से क्षत्रिय क्षेत्र में उत्पन्न पुरुप । अपोल्कस: अपने जातिदोष से मुन्न । + भवति हो जाता है। श्रमण संन्यासी । श्रश्रमण:=प्रसंन्यासी । +भवति- हो जाता है । तापसातपस्वी। अतापसःप्रतपस्वी भवति हो जाता है। एतत्-इस सुपुप्त पुरुप का रूप । पुण्यन-पुण्य करके । अनन्वागतम्-नसंपद है । पापेन-पाप करके । अन- न्वागतम्-असंबद्ध है । हिज्योंकि । तदा उस अवस्था में । +पुरुषः पुरुष। हृदयस्य-हृदय के। सर्वान्सब । शोकान्- शोकों को। तीर्णः पार करनेवाला । भवति होता है यानी उसके पास कोई शोक नहीं पाता है। भावार्थ। याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे राजा जनक ! गाढ़ सुषुप्ति अवस्था में जीवात्मा को किसी पदार्थ का बोध नहीं रहता. -
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५२६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।