पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५२३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

.. अध्याय ४ ब्राह्मण ३ ५०१ प्रतीत होता है कि मानो कोई उसको मार रहा है, मानो कोई उसको अपने वश में कर रहा है, मानो हाथी उसको भगा रहा है, हे राजन् ! यह जीवात्मा जागता हुआ जो जो भयादिक देखता है उसी उसी को स्वप्न अवस्था में भी देखता है, और अज्ञानता के कारण उसको उस अवस्था में सत्य मानता है, हे जनक ! यह निकृष्ट स्वप्न का वर्णन है, श्रागे उत्तम स्वप्न को सुनो मैं कहता हूं, हे राजा जनक ! जिस स्वप्न में स्वमद्रष्टा देखता है कि मैं विद्वान् हूं, मैं राजा हूं, मेरे पास सव प्रजा निर्णय के लिये आती है, मैं निग्रह अनुग्रह करने में समर्थ हूं, जब वह इस प्रकार स्वप्न में देखता है, तब बड़े आनन्द को प्राप्त होता है, और यह फल जाग्रत् अवस्था में शुभ विचार का है, जिसको वह स्वप्न में देखता है ॥ २० ॥ मन्त्रः २१ तदा अस्यंतदतिच्छन्दा अपहतपाप्माऽभयछ रूपम् । तद्यथा प्रियया स्त्रिया संपरिष्वक्तो न बाह्यं किंचन वेद नान्तरमेवमेवाऽयं पुरुपः प्राज्ञनात्मना संपरिष्वक्तो न वाहां किंचन वेद नान्तरं तदा अस्यैतदासकाममात्म- काममकाम रुपछ शोकान्तरम् ।। पदच्छेदः। तत, या, अस्य, एतत् , अतिच्छन्दाः, अपहतपाप्मा, अभयम् , रूपम् , तत्, यथा, प्रियया, स्त्रिया, संपरिष्वक्तः, न, बाह्यम् , किंचन , वेद, न, अन्तरम् , एवम् , एव, अयम्, , -