५०८ बृहदारण्यकोपनिपद् स० परिपूर्ण हैं । अथ अब । यत्र-मिस स्वप्नावस्था में । अविद्या- कारणात्-अविद्या के कारण । + प्रतीतिः भवति-यह प्रतीत होता है कि । एनम्-इस स्वमवृष्टा को । इव-मानों। + चोराः- चोर । नन्ति-मार रहे हैं । इव-मानो। जिनन्ति-कोई अपने वश में कर रहे हैं । इव-मागो । हस्ती हाथी । विच्छाययति- भगाये लिये जाता है । इव-मानो । + एपः यद । गतम् किसी गड़े में । पतति-गिर रहा है । + सम्राट हे राजन् ! । जाग्रत् जाग्रत् अवस्था में । यत्-जो जो वस्तु । एव-निश्चय सहित । पश्यति-देखता है । तत्-उसो उसी को । अत्र%3D स्वप्न में भी । अविद्यया मन्यतेसविद्या के कारण सत्य मानता है। यहां तक निकृष्ट स्वम का वर्णन है यागे उत्तम स्वप्न को कहते हैं। अथ और । यत्र-जिम समय । + स्वप्नदृष्टा-स्या का देखनेवाला । मन्यते-मानता है कि । अहम् इव-मैं विद्वान् के ऐसा हू। देवः इव-देव के समान है। अहम्=मैं । राजा- राजा हूँ। इदम्-यह सब दृश्यमान । अहम् एच-मैं ही है। तदान्तब । अस्य-इस जीवात्मा का । सःवह । परमः% श्रेष्ठ । लोकाअवस्था है। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! जीवात्मा की क्रीड़ा के लिये इस शरीर में बहुत सी प्रसिद्ध नाड़ियां है, वे हितानाम करके कही जाती हैं, क्योंकि वे हित करनेवाली हैं, ये नाड़ियां एक बाल के सहत्र टुकड़ों के एक टुकड़े के बराबर अतिसूक्ष्म हैं, और ये नाड़ियां नीले, पीले, श्वेत, हरित और लोहित रंग की हैं, हे जनक! जिस स्वप्न अवस्था में अविद्या के कारण स्वप्नद्रष्टा को ऐसा
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