अध्याय ४ ब्राह्मण ३ ५०५ भावार्थ। है राजा जनक ! ऊपर जो विषय कहा गया है, उस विषय में नीचे एक दृष्टान्त हैं उसको सुनो, मैं कहता हूँ। बैंस मत्स्यराज नदी के दोनों तटों के बीच धूमा फिरा करता ६ कभी इस पार और कभी उस पार इसी प्रकार यह जीवात्मा कभी जागरण से स्वप्न को जाता है और कभी स्वप्न से जागरण को आता है ॥ १८ ॥ मन्त्रः १६ तद्यथास्पिन्नाकाशे श्येनो वा सुपर्णो वा विपरिपत्य धान्तः सछहत्य पनौ संलयायैव ध्रियत एवमेवाऽयं पुरुप एतम्मा अन्ताय धावति यत्र सुप्तो न कंचन कामं काम- यते न कंचन स्वमं पश्यति ।। पदच्छेदः। तत्, यथा, अस्मिन् , अाकाशे, श्येनः, वा, सपर्णः, वा, विपरिपत्य, श्रान्तः, संहत्य, पक्षी, संलयाय, एव, प्रियते, एवम, एव, अयम् , पुरुपः, एतस्मै, अन्ताय, धावति, यत्र, सुप्तः, न, कंचन, कामम् , कामयते, न, कंचन , स्वप्नम् , पश्यति॥ नन्धय-पदार्थ। तत्-यह पुरुष स्वमान्त और युद्धान्त स्थानों को छोड़कर सुपुप्ति श्रयस्था को चाहना है इसमें । + दृग्रान्तः ईष्टान्त दिया जाता है कि । यथासे । अाकाशेन्याकाश में । श्येनाल्याज ! चा-अथवा । सुपर्ण गरुड़ । विपरिपत्य-उड़ कर । श्रान्तः थका हुश्रा । संलयाय-विश्राम के लिये । पौ-अपने दोनों
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