अध्याय ४ ब्राह्मण ३ भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! यह जीवात्मा स्वप्न अवस्था में बन्धु, मित्र, स्त्री आदिकों के साथ क्रीड़ा करके इधर उधर विचर करके पुण्यजन्य सुख को, पापजन्य दुःख को भोग करके सुपुप्ति अवस्था में जिसको संप्रसाद अवस्था भी कहते हैं, प्रवेश करता है वहाँ पर जाग्रत् और स्वप्न में देखी वस्तु को भूल जाता है, और कुछ काल रहकर जिस मार्ग से गया था उसके प्रतिकूल मार्ग करके स्वभावस्था के लिये लौट आता है, क्योंकि जो कुछ वह स्वमात्मा स्वाम में देखता है उस स्वप्न पदार्थ से वह नहीं बद्ध होता है, क्योंकि वह पुरुप वास्तव करके असङ्ग है, इस पर जनक महाराज कहते हैं कि हे याज्ञवल्क्य, महाराज ! यह ऐसाही है जैसा आपने कहा है, वही मैं आप पूज्य के लिये सहस्त्र गायों को दक्षिणा में देता हूँ, आप कृपा करके मुक्ति के लिये उपदेश दीजिये ॥ १५ ॥ मन्त्रः १६ स वा एप एतस्मिन्स्वमे रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्यं च पापं च पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैव स यत्तत्र किंचित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष इत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य सोऽहं भगवते सहस्रं ददा- म्यत ऊर्च विमोक्षायैव बहीति ॥ पदच्छेदः। स, त्रै, एपः, एतस्मिन् , स्वप्ने, रत्वा, चरित्वा, दृष्ट्वा , ।
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