४१६ बृहदारण्यकोपनिपद् स० मन्त्रः १३ स्वमान्त उच्चावचमीयमानो रूपाणि देवः कुरुते वहूनि । उतेक स्त्रीभिः सह मोदमानो जनदुतेवापि भयानि पश्यन् । पदच्छेदः। स्वप्नान्ते, उच्चावचम् . ईयमानः, रूपाणि, देवः. कुरुते, बहूनि, उत, इव, स्त्रीभिः, सह. मोदमानः, जक्षत्, उत, इव, अपि, भयानि, पश्यन् ॥ अन्वय-पदार्थ। उच्चावचम्-अनेक ऊँच नीच योनियों को । ईयमानः प्राप्त होता हुमा । देवः दिव्य गुण वाला जीवात्मा । वहूनि-बहुत से । रूपाणि-रूपों को। कुरुते-वासनावश उत्पन्न करता है। उत- और कभी। इव-मानो । जक्षत् इव-बन्धु मित्रादिकों के साथ हँसता हुआ या और कभी । स्त्रीभिः स्त्रियों के । सह-साथ । मोदमान:रमण करता हुमा । + अथवा-अथवा । भयानि% भयजनक व्याघ्र सिंह आदि को । पश्यन्-देखता हुधा । स्व- नान्ते-स्वप्तस्थान में + क्रीडमानः + भवति-क्रीड़ा करता है। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक! यह दिव्य गुणवाला जीवात्मा ऊँच नीच योनियों को प्राप्त होता हुआ अनेक रूपों को वासनावश उत्पन्न करता है,और उनकेमाथ विहार करता है, कभी विद्वान् होकर शिष्य को पढ़ाता है, और कभी शिष्य बनकर पढ़ता है, कभी बन्धु मित्र आदिकों के साथ हँसता है, और कभी स्त्रियों के साथ रमण करता है, और कभी
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५१०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।