अध्याय ४. ब्राह्मण २. मापसे । तस्य-उस ब्रह्म के । आयतनम् आयतन और प्रतिष्टाम्प्रतिष्ठा को भी। अब्रवीत्-विदग्ध ने कहा. है । +.जनकःजनकाने । + आह-कहा । याज्ञवल्क्य हे याज्ञ-। वल्क्य ! । मे न मुझसे नहीं । अब्रवीत्-कहा.है। इति इस पर ।+ याज्ञवल्क्य:=प्राज्ञवल्क्य ने । आह कहा । सम्राट: हे जनक ! । एतत्-यह ब्रह्म की उपासना । एकपाद्-एक चरण- वाली है। इति=इस पर । +जनका सनक ने । + आह कहा। याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य !..स: +त्वम् अापही। + तत्-उस उपासना को। ना-हमसे । ब्रहि-कहैं।+याज्ञवल्क्य: याज्ञवल्क्य ने+आह-कहा। हृदयम्-हृदय । एवम्ही । आयतनम्- पायतन है। आकाश: परमात्माही। प्रतिष्ठा प्राश्रय है। एनत्- यही ब्रह्म । स्थितिः स्थिति है यानी परम स्थान है। इति- ऐसी । एनत्-इस हृदयस्थ ब्रह्म की । उपासीत-उपासना करे । सम्राट् जनक ने । उवाच-कहा। याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य ! । स्थितता-स्थिति । का-क्या वस्तु है । याज्ञवल्क्य याज्ञवल्क्य ने । उवाच-कहा । सम्राट हे राजन् !! हृदयम्-हृदय । एव ही। + एतस्य इसकी। + स्थितता=स्थिति है। हिं= क्योंकि । सम्राट् हे राजन् !। सर्वेषाम् सब । भूतानाम्- प्राणियों का jायतनम् स्थान । हृदयम्-हृदय है। सम्राट हे राजन् ! । हृदयम्-हृदय । वै-ही । सर्वेषाम्-सब । भूता नाम्-प्राणियों का । प्रतिष्ठा आश्रय है। हिं-क्योंकि । सम्राट हे जनक ! । सर्वाणि-सब । भूतानि-प्राणी । हृदये हृदय में। एव-ही । प्रतिष्ठितानि-स्थित । भवन्ति हैं । सम्राट् = है जनक !। हृदयम्-हृदय । वैनिस्सन्देह । परमम्=परम । ब्रह्म ब्रह्म है। या जो। एवम्-इस प्रकार । विद्वान् जानता हुआ। एतत् इस ब्रह्म की। उपास्ते-उपासना करता है। एनम्-उसको।
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