४६२ बृहदारण्यकोपनिपद् स० से मुक्त होता हुधा जाग्रत् अवस्था के अंश को ग्रहण कर और फिर उसको मिटाकर श्रपन से ही निर्मागा कर अपने निज प्रकाश करके बहुत प्रकार स्वप्न की क्रीड़ा को काता है, इस अवस्था में यह जीवात्मा स्वयं प्रकाशवाला होता है, सूर्यादि ज्योति की अपेक्षा नहीं रखता है, अपनी ही ज्योति की सहायता करके अनेक क्रीड़ा को करता है |॥ ६ ॥ मन्त्रः १० न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्त्यथ रथान्थयोगान्पथः सृजते न तत्रानन्दा मुदः प्रमुदो भवन्त्यथानन्दान्मुदः प्रमुदः सृजने न तत्र वेशान्ताः पुष्करिएयः । स्रवन्त्यो भवन्त्यथ वेशान्तान्पुष्करिणी स्रवन्तीः सजते स हि कती ।। पदच्छेदः। न, तत्र, रथाः, न, रथयोगाः, न, पन्यान:, भवन्ति, अथ, रथान् , रथयोगान् , पयः, मृनते, न. तत्र, आनन्दाः, मुदः, प्रमुदः, भवन्ति, अय, आनन्दान् , मुदः, प्रमुदः, सृजते, न, तत्र, वेशान्ताः, पुष्करिण्यः, स्रयन्त्यः,भवन्ति, थ, वेशान्तान्, पुष्करिणीः, सवन्तीः, सृजते, सः, हि, कर्ती ॥ अन्वय-पदार्थ। तत्र-उस स्वप्नावस्था मेंान-नारथाःरयादिक । भवन्ति: होते हैं। नन । रथयोगा-चोई प्रादिक होते हैं। च-ौर । नम्न । पन्थानम् रास्ते होते हैं। श्रथ परन्तु । सःवह सीयारमा। रथान् रथों को। रथयोगान्-घोड़ों को । पथ मार्गों को।
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