पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५०५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय ४ ब्राह्मण ३ अस्य-इस । लोकस्य-जाग्रत् लोक के । मात्राम् अंश को। अपादाय-लेकर । + च पुनः और फिर । स्वयम्-स्वतः । विहत्य-उसको मिटाकर । स्वयम्-अपने से ही। निर्माय% उसे निर्माण कर । स्वेन अपने निज । भासा-प्रकाश करके । + च-और । स्वेन अपने निज । ज्योतिषा-तेज करके । प्रस्वपिति-बहुप्रकार स्वप्न की क्रीड़ा को करता है । अत्र इस अवस्था में । अयम्-यह । पुरुषः जीवात्मा । स्वयम् ज्योति:- स्वयं प्रकाशवाला। भवति होता है। भावार्थ । पूर्व में जो कुछ कहा गया है उसी को स्वप्न के दृष्टान्त से कहते हैं, इस जीवात्मा के रहने के दोही स्थान हैं, एक तो यह लोक और दूसरा परलोक है अथवा एक जाग्रत् स्थान हैं, और दूसरा सुपुप्ति स्थान है, और इन दोनों की संधि तृतीय स्वप्नस्थान है, इस तृतीय स्थान में स्थित होकर यह जीवात्मा दोनों स्थानों को देखता है, और जैसे जन्म के अनन्तर मरण और मरण के अनन्तर जन्म होता है, वैसे ही जागरण के अनन्तर स्वप्न और स्वप्न के अनन्तर जागरण होता है, और जैसे जागरण के और स्वप्न के मध्य में एक अवस्था होती है, वैसे ही लोक और परलोक के मध्य एक संधि होती है, वही स्वप्नअवस्था है, उसी में जीवात्मा इस जन्म और अग्रिम जन्म के कर्मफल को देखता है, और वही जीव परलोक में कर्मानुसार फलाश्रयवाला होता है, और फिर उसी आश्रय को ग्रहण करके दानों यानी अधर्मजन्य दुःखों को और धर्मजन्य सुखों को भोगता है, और जब वह जीवात्मा सो जाता है तब सब वासनाओं