अध्याय ४ ब्राह्मण ३ ४८७ और अन्तःकरण भी स्थित हैं, तो क्या वह ज्योतिःस्वरूप पुरुप उन इन्द्रियों और अन्तःकरण से उत्पन्न हुआ है, या इनसे वह कोई अतिरिक्त पुरुप है, आप कृपा करके मुझ समझाकर कहें, कि क्या इन्द्रिय अधा अन्तःकरण अयवा इन्द्रियसहित शरीरसमुदाय आत्मा है, या इनसे वह भिन्न है, इसके जवाब में याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं जो इन्द्रियों विप विज्ञानरूप से स्थित है और जो बुद्धि विषे अन्तःप्रकाशवाला पुरुष है, वही आत्मा है, अथवा जो मन के द्वारा सब इन्द्रियों के निकट जाकर उन सबको सजी- वित कर प्रज्वलित करता है, और जैसे राजा अपने सह- चारियों को लेकर इधर उधर विचरता है तद्वत् जो इन्द्रियों के साथ विचरनेवाला है वह आत्मा है, अथवा जो हृदय में रहता है और जिसके अभ्यन्तर सूर्यवत् स्वयं ज्योतिः :स्वरूप सब शरीरों में रमण करता है वह आत्मा है, फिर शंका होती i कि ः जीवात्मा दीपक के समान यहांही लय- भाव को प्राप्त हा जाता है और इसका कोई अन्य लोक नहीं है. दम शंका का समाधान याज्ञवल्क्य महाराज करते हैं कि, वह जीवात्मा सामान्य रूप से दोनों लोकों में गमन करता है, अर्थात् देहादि से भिन्न कोई कर्ता भोक्ता है जो मरकर दुमरे जन्म में अपने कर्मफल को भोगता है, क्योंकि जिस समय यह जीवात्मा मूञ्छित होकर और बेखवर होकर शरीर को त्यागने लगता है तो निज उपार्जित धर्म अधर्म को याद करने लगता है, यह सोचते हुये कि इन सबको मैं त्यागंगा क्या ये सब मुझ को फिर मिलेंगे ? ये कैसे जाना जाता है इस बात के जानने . के लिये स्वप्न का . दृष्टान्त
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