. बृहदारण्यकोपनिपद् स० है, क्योंकि यह जीवात्मा वाणी करके ही बैठता है, इधर उधर फिरता है, कर्म करता है, कर्म करके अपने स्थान को वापम आता है, इमलिये हे जनक ! जहां अपना हाथ भी नहीं दिखाई देता है, परन्तु जहां वाणी उच्चरित होती है वहां यानी उस अन्धेरे में पुरुष वाणी करके पहुँचता है, यह सुनकर राजा जनक ने कहा यह ऐसाही है जैसा आपने कहा है ॥ ५ ॥ मन्त्रः ६ अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्त मिते शान्तेऽग्नौ शान्तायां वाचि किंज्योतिरेवायं पुरुष इत्या- स्मैवास्य ज्योतिर्भवतीत्यात्पनैत्रायं ज्योतिपास्ते पल्य- यते कर्म कुरुते विपल्येतीति ।। पदच्छेदः। अस्तमिते, आदित्ये, याज्ञवल्क्य, चन्द्रमसि, अस्तमिते, शान्ते, अग्नौ, शान्तायाम्, वाचि, किंज्योतिः, एव, अयम्, पुरुपः, इति, आत्मा, एव, अस्य, ज्योतिः, भवति, इति, आत्मना, एव, अयम् , ज्योतिपा, आस्ते, पल्ययते, कर्म, कुरुते, विपल्येति, इति ॥ अन्वय-पदार्थ । याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य! श्रादित्ये-सूर्य के । अस्तमिते- अस्त होने पर । चन्द्रमसि-चन्द्रमा के। अस्तमिते-अस्त होने परं । अग्नी-अग्नि के । शान्त-शान्त होने पर । वाचि वाणी के । शान्तायाम् वन्द होने पर । अंयम यह । पुरुषः-पुरुष । . . .
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