अध्याय ४ नासण ३ ४७५ प्रारा है वह नीचे को जाता है, जो सब दिशाओं में प्राण है वह सब तरफ़ जाता है, ऐसी दशा में वह श्रात्मा वाणी करके नहीं कहा जा सकता है, यह प्रारमा अगृह्य है, क्योंकि इसका प्रहण नहीं हो सका है, यह आत्मा अक्षय है, क्योंकि इसका नाश नहीं होता है, यह श्रात्मा असङ्ग है, क्योंकि इसका संग नहीं हेता है, यह श्रात्मा बन्धरहित है, क्योंकि यह न व्यथिन होता है न हिलित होता है, ऐसा उपदेश देते हुये याज्ञवल्क्य बोले कि, ई राजा जनक ! श्राप निर्भयता को प्राप्त होगये हैं, जहाँ जाना या वहाँ पहुँच गये हैं अब श्राप क्या चाहते हैं ? इस पर राजा जनक ने कहा, है याज्ञवल्क्य ! अपको भी अभय पद प्राप्त होवे, हे परम पुस्य ! जो बाप हमको अभय ब्रह्म का उपदेश देते हैं, आपको हमारा नमस्कार हो, हे ऋपे ! मैं संपूर्ण विदेह देश को श्रापकं बाण कमल में अर्पण करता हूँ, मैं श्रापका दास उपस्थित हूँ, श्राप जो श्राज्ञा दें, उसको करने को तैयार हूँ ॥ ४ ॥ इति द्वितीयं ब्रह्मणम् ॥ २ ॥ अथ तृतीयं ब्राह्मणम् । मन्त्रः १ जनकद वैदेह याज्ञवल्क्यो जगाम स मेने न
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