अध्याय ४ ब्राह्मण २ ४६९ अन्वय-पदार्थ । या जो। अयम्-यह । दक्षिणे-दहिने । अनन्-आँख में। पुरुपानुरुप है । एपः ह यही । वै=निस्सन्देह । इन्धः नाम: इन्ध नाम से प्रसिद्ध है । तम्सी । वैप्रसिद्ध । एतम् इस । सन्तम्-सत्य । पुरुपम्-पुरुप । इन्धम् इन्ध को। इन्द्रः इन्द्र । इति करके । परोक्षण-परोक्ष नाम से । एच हो । आहुः-पुकारने हैं । हिक्योंकि । देवाः देवगण । परोक्ष- प्रियाः इव-परोक्षप्रिय ।+ सन्त: होते हैं। + च और । प्रत्यक्षद्विपः प्रत्यक्ष वस्तु से द्वेप करनेवाले । + भवन्ति होते हैं। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे जनक! जो यह दहिनी आँख में पुरुप दाखता है वह इन्ध नाम से प्रसिद्ध है, इसी इन्ध को परोक्ष नाम इन्द्र करके पुकारते हैं, क्योंकि देवगण परीक्षाप्रिय होत हैं, और प्रत्यक्षमिय नहीं होते हैं, जो गुप्त श्रश्रवा अव्यक्त है ( स्पष्ट न हो उसको: परोक्ष कहते हैं, और जो व्यक्त हो अथवा स्पष्ट हो अथवा प्रसिद्ध हो उसको प्रत्यक्ष कहते हैं ) वेदों में इन्द्र नाम बहुधा आया है, इन्ध ऐमा नाम नहीं आया है, इन्ध गुप्त नाम है, इसीसे इसकी शोभा है, उसी प्रकार जीवात्मा भी शरीर में गुप्त व्यापक है, इसी कारण वह भी शोभायमान है, परमात्मा भी जगतरूपी महाशरीर में गुप्त व्यापक है, इसलिये वह भी बड़ी शोभा का देनेवाला है, इसी परमात्मा के निकट अपृथक् जो अात्मा है और वह हृदयाकाश विष स्थित है उसी के पास आपको जाना होगा ॥२॥
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४८३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।