पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४८

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३२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० ते-चे असुर । विदुःजान गये कि । अनेन-इस । उद्गगात्रा- उद्गाता करके । न:-हमारे ऊपर । प्रत्येष्यन्ति-वे देवता धाक- मण करेंगे । इति इसलिये । तम्-उस उद्गाता के । अभिद्रत्य% 'सामने जाकर ।+स्वेन-अपने । पाप्मना-पाप अस्त्र से। तम्-उस- को । अविध्यन् वेधते भये । यत्-जिसी कारण । एव-निश्चय करके । सा-वही । सः यह प्रसिद्ध । एव-निस्सन्देह । पाप्मा- पाप है। यःजो । सा=वह नेत्र में स्थित हुा । सा-प्रसिद्ध । पामा-पाप । इदम् इस । अप्रतिरूपम्-अयोग्य रूप को। पश्यति-देखता है। भावार्थ। हे सौम्य ! फिर वे देवता चक्षु अभिमानी देवता से कहने लगे कि हे चक्षुदेव ! तू हमारे लिये उद्गाता बनकर उद्गीथ का गान कर, उसने कहा बहुत अच्छा, ऐसा कहकर चक्षुदेवता उन देवताओं के लिये उद्गीथ का गान करता भया, और फिर चक्षु करके जो भोग प्राप्त होने योग्य है उसको देवताओं के लिये उद्गान करता भया, और जो मंगलदायक स्वरूप है उसको अपने लिये उद्गान करता भया, तब वे असुर जान गये कि उद्गाता करके देवता हमारे ऊपर आक्रमण करेंगे, इसलिये व असुर उस उद्गाता के सामने जाकर उसको अपने पाप अस्त्र करके वेधित कर दिया, इसलिये वह पाप यही है जिस करके चक्षुदेवता अयोग्य रूपों को देखता है ॥ ४ ।। मन्त्रः ५ अथ ह श्रोत्रमूचुस्त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यःश्रोत्र- मुदगायत् यः श्रोत्रे भोगस्तं देवेभ्य गायद्यत्कल्याणं शृणोति तदात्मने ते.विरदुनेन वैन उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति -