अध्यायं.४ ब्राह्मण ? -४,५९ उपासना करता है। | एनम्-उसको । मन:-मन । न नहीं। जहाति-त्यागता है । एनम्-उस ब्रह्मवेत्ता को । सर्वाणि सब । भूतानि-प्राणी । अभिक्षरन्ति-रक्षा करते हैं। च= शौर । साम्बा । देवः देव । भूत्वा होकर । देवान् अपि देवताओं को ही । पति-प्राप्त होता है । इति-ऐसा । श्रुत्वा- सुनार । वैदेहः-विदेहपति । जनकः जनक । उवाच-बोले कि । हस्त्यृपभम् सहन्त्रम्-हाथी के तुल्य एक सांड़ सहित हार गायों को। ददामि में दक्षिणा में आपको देता हूं। इति इस पर । साह । याज्ञवल्क्यः याज्ञवल्क्य । + उवाच-बोले कि । + सम्राट् हे राजन् !। मे-हमारे । पिता-पिता। अमन्यत कह गये हैं कि । + शिष्यम् शिष्य को। अननुशिष्य-बोध कराये विना । दक्षिणाम् दक्षिणा.को । इति-कभी । न-नहीं'। हरेत इति लेना चाहिये। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज छठी बार राजा जनक.से पूछते हैं कि हे राजा जनक | जिस किसी आचार्य ने आपसे जो कुछ कहा है उसको मैं सुनना चाहता हूँ, यह सुनकर राजा जनक ने कहा कि जाबाल के पुत्र सत्यकाम ने कहा है कि मनही ब्रह्म है, इस पर याज्ञवल्क्य ने कहा यह ठीक है, श्रापको सत्यकाम ने वैसेही उपदेश दिया है जैसे कोई पुरुष माता पिता गुरु करके सुशिक्षित हुश्रा अपने शिष्य के प्रति उपदेश करता है, निस्संदेह मनही ब्रह्म है, क्योंकि गनरहित पुरुप से क्या लाभ हो सक्ता है, फिर याज्ञवल्क्य महाराज ने 'कहा है सम्राट् जनक.! क्या आपसे संत्य काम ने उस ब्रह्म के. आयतन और प्रतिष्ठा को भी कहा है, सम्राट ने उत्तर
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४७३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।