पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४७२

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१४५८ वृहदारण्यकोपनिपद् स. फिर | + याज्ञवल्क्यःयाजवरस्य ने +. याह-कहा। + जनक हे जनक ! । तुक्या । ते-आपसे । तस्य-उस ब्रह्म के। आयतनम्-शायतन और । प्रतिष्ठाम्-प्रतिष्ठा को भी। अत्रवीत् सत्यकाम ने कहा है । + जनकः जनक ने । + श्राहकहा । + याज्ञवल्क्य याज्ञवल्क्य ! । मे-मुझसे । नम्नहीं। अब्रवीत् कहा है। तिस पर । * याज्ञवल्क्या- याज्ञवल्क्य ने। श्राहकहा । सम्राट्= जनक ! । एतत्- यह ब्रह्म की उपासना । एकपाद्-एक घरगवाली है। इति ऐसा । श्रुत्वा-सुनकर । + जनका जनक ने । + श्राहक कहा । याज्ञवल्क्य% है याजयल्स्य !। साम्बह । + त्वम् 'पापं । ना-हमको । ब्रहि-विधिपूर्वक उपदेश करें। + यात्र- वल्क्या याज्ञवल्क्य ने। याद-कहा। + मनः मने । एव% ही । प्रायतनम्ब्रम का शरीर है। नाकाशाशकाश ही । प्रतिष्ठा-याश्रय है। मनः==मन । पचही ! आनन्दः% थानन्द है । इति-इसी बुद्धि से । एनत्-इस ब्रह्मा की । उपा- सीत-उपासना करे । सम्रा राजा जनक ने । उवात्र-पूा। याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य ! अानन्दता-नानन्द । का-क्या है। याज्ञवल्क्यान्याज्ञवल्क्य ने । उवाच-उत्तर दिया । सम्राट -हे जनक ! । मनः-मन । एवंही । श्रानन्दः मानन्द है + हिक्योंकि । सम्राट हे जनक ! । मनसा-मन करके ही। स्त्रियम्-स्रो के पास । अभिहार्यते-पुरुष ले जाया जाता तस्याम्-उसी स्त्री में । प्रतिरूपः-पिता के सदृश । पुत्रा लदका । जायते-पैदा होता है। सावह लड़का । आनन्दः- आनन्द का कारण होता है। सम्राट हे राजन् ! । मनः मन । चै-ही। परमम्-परम । ब्रह्मबल है । याजो। एवम् इस प्रकार । विद्वान् मानता हु। एतत् इस ब्रह्म की । उपास्ते -