. ४५० बृहदारण्यकोपनिपद् स० चक्षुइन्द्रिय का चक्षुगोलक ही श्रायतन यानी शरीर है, और अन्त में ब्रह्मही इसका आश्रय है, इस चक्षुरात्मक प्रिय वस्तु को सत्य मानकर इसके गुणों का ध्यान करे, इस पर जनक ने कहा, हे याज्ञवल्क्य, महाराज ! इसकी सत्यता क्या है, तब याज्ञवल्क्य महाराज बोले कि, हे जनक ! चक्षु इन्द्रिय की सत्यता चक्षुहीं है, क्योंकि जब एक द्रष्टा और एक श्रोता विवाद करते हुये किसी वस्तु के निर्णय के लिये मध्यस्थ के पास जाते हैं, तो जिसने नेत्र से देखा है उससे वह मध्यस्थ पूछता है कि क्या तूने अपने नेत्रों से देखा है, इस पर अगर वह कहता है कि हां मैंने अपनी आंखों से देखा.है तब उसका वाक्य सत्य माना जाता है, क्योंकि आंखों से देखी हुई वस्तु में व्यभिचार नहीं होसक्ता है, और जो यह कहता है कि मैंने नेत्रों से नहीं देखा है, पर कानों से सुना है तो उसकी बात ठीक नहीं समझी जाती है, क्योंकि इसमें संभवं है कि वह असत्य हो, इस कारण चक्षुही सत्य है, और उसको सत्य मानकर उसके गुणों का ध्यान चक्षुरात्मक में करे, हे राजन् ! चक्षुही परम आदरणीय प्रिय वस्तु है, जो विद्वान् इस प्रकार जानता हुआ नेत्रात्मक ब्रह्म की उपासना करता है तो उस ब्रह्मवेत्ता को नेत्र नहीं त्यागता है यानी. वह कभी अन्धा नहीं होता है, उसकी रक्षा सब प्राणी करते हैं, वह देवता होकर देवताओं को प्राप्त होता है, ऐसा सुन-.. कर विदेहपति राजा जनक ने कहा मैं एक हज़ार गौओं को हस्ति तुल्य सांड़ सहित आपको दक्षिणा में देता हूं, तब वह याज्ञ- वल्क्य महाराज बोले कि मेरे पिता की आज्ञा है कि शिष्य से विना उसको बोध कराये दक्षिणा न लेना चाहिये ।। ४ । .
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४६४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।