अध्याय ४ ब्राह्मण १ ४४३ मस की उपासना । एकपात्-एक चरणवाली ।+ अब्रवीत्- थापसे कही है। रति इमपर । सः सनक ने । + आह-कहा। न:हमारे लिये । याज्ञवल्क्य हे ऋपे, याज्ञवल्क्य ! । नहि उस ग्रह को साप ही कहें। याज्ञवल्क्यः याज्ञवल्क्य ने । + श्राहकदा । प्राणान्प्राण । पत्रही। आयतनम्-प्राण का याप्रय है। प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा । श्राकाश-ग्रहा है । एतत्- इस प्राणप। प्रियम् प्रिय को। इति ऐसा मानकर । उपा- सीत-उपासना करे +पुनः फिर जिनका जनक ने।+ श्राह पूछा कि । याक्षवल्क्य हे याज्ञवल्क्य !। प्रियता=प्रिय । का पर है। + याज्ञवल्क्यः याज्ञवल्क्य ने । उवाच-जवाब दिया कि । समाहे राजन् ! । प्राणः एच-प्राण ही। चै-निश्चय करके। + प्रियता=प्रिय है। +हियोंकि । सम्राह-हे सम्राट् । प्राणस्य-प्राण के ही । कामाय-प्रथं । अयाज्यम्तितादिकों से भी। याजयति-यज्ञ कराते हैं। श्रप्रतिगृह्यस्य-अप्रतिगृह्म पुनप से । प्रतिगृहातिन्द्वान लेते हैं। अपि-धौर । याम्- जिस । दिशम्-दिशा में । वधाशङ्कम्-चोरादि करके अपने माने का भय । भवति होता है । तत्र-इस दिशा में भी । सम्राट्कामाय पारी काम के लिये । प्राणस्य एव-अपने प्राण के हो । प्रियत्वे-निमित्त । एति-आते हैं। + अतः- इनी से । सम्राट् हे राजन् ! । प्राण प्राण हो। वै-निश्चय करके । परमम्-परम । ब्रह्म-प्रियवस्तु है । एवम् इस प्रकार । यानो । विद्वान् विद्वान् । एतत्-इस ब्रह्म की। उपास्ते% उपासना करना है। एनम् उसको । प्राण प्राण । न-नहीं । जहाति म्यागता है। एनम् उसकी । सर्वाणि-सत्र । भूतानि प्राणी । अभिक्षरन्ति-रक्षा करते हैं। + और । +स- वह । देवः देवरूप । + भूत्वा होकर । देवान् अपिमरनेवाद
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४५७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।