अध्याय ४ ब्राह्मण १ कहा है हूं, इस पर जनक महाराज ने जवाब दिया कि शिलिन ऋषि के पुत्र जित्वा ने मुझसे कहा है कि वाणी ही ब्रह्म है, इस पर याज्ञवल्क्य ने कहा कि जित्वा ऋपि ने ठीक कहा है, जैसे माता पिता गुरु करके सुशिक्षित पुरुष अपने शिष्य को उपदेश करता है वैसे ही जिवा ने अापसे कहा है, निस्संदेह वाणी नार है, क्योंकि बिना वाणी के पुरुष गूंगा कहलाता है उससे लोगों का क्या अर्थ निकल सकता है परन्तु आप यह तो बताइये कि जित्वा ने ब्रह्म के आश्रय और प्रतिष्ठा को भी बताया है। जनक महाराज ने उत्तर दिया कि इसका उपदेश तो मुझसे नहीं किया है, तत्र याज्ञ- सम्राट ! यह उपदेश एक चरण के ब्रह्म का है, इमलिये यह त्यागने येग्य है क्योंकि एक चरण की उपासना निष्फल है, यह सुनकर जनक ने कहा कि यदि यह ऐसा है तो आप कृपा करके बताइये कि वाणी की मायतन और प्रतिष्ठा क्या है, इस पर याज्ञवल्क्य ने का हे राजन् ! वाणी ही वाणी का आश्रय है और परमात्मा वागी की प्रतिष्ठा है, इस प्रकार जानता हुश्रा, वाणीरूपी नाम की उपासना करे, जनक राजा ने कहा, याजयन्वय ! वाणी जानने के लिये कौन शास्त्र है, याज्ञ- वन्त्य महाराज ने उत्तर दिया हे जनक ! वाणी ही इसका शार है, क्योंकि है राजन् ! वाणी करके ही बंधु, मित्र, अपने पराये, सब जाने जाते हैं, वाणी करके ही ऋग्वद, यजुर्वेद,मामयद, अथर्वणवेद, इतिहास, पुराण, पशुविद्यः,वृक्ष- विया, भूगोलविद्या, श्रध्यात्मविद्या,श्लोकबद्ध काव्य, अतिसंक्षिप्त सारवाले सूत्र श्रादि सब जाने जाते हैं, और विविधयाग-
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