बृहदारण्यकोपनिपद् स० याज्ञवल्क्य याज्ञवल्क्य नै । उवाच-कहा कि । सम्राट- हे जनक ! । उभयम्-दोनों के लिये । एव-निश्चय करके। + अगमम्-पाया हूँ । भावार्थ । जब प्रसिद्ध विद्वान् विदेहपति राजा जनक गद्दी पर बैठे थे तव प्रसिद्ध सर्व पूज्य विद्वान् याज्ञवल्क्य आते भये, उनको देखकर और उनका विधिवत् पूजन करके उनको श्रासन पर बैठाला, और प्रसन्न मुख से बोले कि हे महाराज, याज्ञ- वल्क्य ! आप किस निमित्त इस समय मेरे पास आये हैं, क्या पशु धन की इच्छा करके आये हैं, या अत्यन्त सूक्ष्म गुह्य वस्तु के विचारार्थ आये हैं, अर्थात् जो कुछ अन्य आचार्यों ने मुझको उपदेश किया है वह यथार्थ किया है और मैंने उसको यथार्थ समझा है इसके जानने के लिये श्राप पधारे हैं । राजा के इस वचन को सुनकर याज्ञवल्क्य ने कहा मैं दोनों के अर्थ आया हूं, अर्थात् पशुग्रहणार्य और तत्त्वनिर्णयार्थ दोनों के लिये आया हूं ॥१॥ मन्त्रः २ यत्ते कश्चिदब्रवीत्तच्छृणवामेत्यब्रवीन्मे जित्वा शैलि- निर्वाग्वै ब्रह्मेति यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्यात्तथा तच्छेलिनिरब्रवीद्वाग्वै ब्रह्मत्यवदतो हि किछ स्यादित्य- ब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति स वै नो हि याज्ञवल्क्य । वागेवायत- नमाकाशः प्रतिष्ठा प्रज्ञेत्येनदुपासीत । का प्रज्ञता याज्ञ-
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