अध्याय ३ ब्राह्मण १ ४२७ . पदच्छेदः। त्वचः, एव, अस्य, रुधिरम् , प्रस्यन्दि , त्वचः , उत्पटः, तस्मात् , तदा, आतषणात्, प्रैति, रसः, वृक्षात्, इव, आहतात् ।। अन्वय-पदार्थ। अस्य-उस पुरुप के । त्वचःचर्म से । रुधिरम्-रुधिर । प्रस्यन्दि-निकलता है। एव-वैसेही । त्वचा वृक्ष की त्वचा से । उत्पट:-गोंद निकलता है । इव-जैसे । पाहतात् कटे हुये । वृक्षात-वृक्ष से । रसरस निकलता है । तस्मात् उसी प्रकार । प्रातृरणात्कटे हुये पुरुष से ! तत्वह खून । प्रति निकलता है। भावार्थ । जैसे पुरुष के चर्म से रुधिर निकलता है वैसेही वृक्ष के त्वचा, गोंद निकलता है और जैसे कटे हुये - वृक्ष से रस निकलता है वैसेही कटे हुये पुरुष से रक्त निक- लता है ॥ २७-२॥ मन्त्र: २७-३ माछसान्यस्य शकराणि किनाट स्नाव तस्थिरम् । अस्थीन्यन्तरतो दारूणि मज्जा मज्जोपमा कृता ।। पदच्छेदः। मांसानि, अस्य, शकराणि, किनाटम् , स्नाव, तत् , स्थिरम् , अस्थीनि, अन्तरतः, दारूणि, मज्जा, मज्जोपमा, कृता ॥ अन्वय-पदार्थ। इव-जैसे । अस्य-इस पुरुष के । मांसानि-मांस। शक-
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