२८ वृहदारण्यकोपनिषद् स. अनेन-इस । उद्गात्रा-उद्गाता की सहायता करके । नः हम लोगों के ऊपर । प्रत्येप्यन्ति-देवता आक्रमण करेंगे । इति- इसलिये । तम्बाणील्प । अभिद्रत्य-उस उद्गाता के सामने जाकर उसको स्वेन अपने । पाप्मनाम्पाररूप प्रख करके । अविध्यन्वेधित करते भने । यत्-जिस कारण । एव-निश्चय करके । लकही। सः यह प्रसिद्ध । एव-निस्संदेह । पाप्मा- पाप है । यःजो। सावह वाणी में स्थित हुश्रा। सः यह प्रसिद्ध । पाप्मा-पाप । इदम् इस । अप्रतिरूपम्-मृत धादिक को । वदति-बोलता है। भावार्थ। हे सौम्य ! देवताओं ने पूर्व कहे हुए विचार को निश्चय करके वाग्देवी से कहा-हे देवी! तू उद्गात्रा बनकर हमारे कल्याणार्थ उद्गीथ का गायन कर, उसने कहा बहुत अच्छा, ऐसा ही करूँगी, यह कहकर वाग्देवी उन देवताओं के कल्याण के लिये गान करती भई, तिसके पीछे वाक् में जो भोग है अथवा वाक् इन्द्रियद्वारा जो भोग प्राप्त होता है, उसको तीन पवमान स्तोत्रों करके देवताओं के लिये वारदेवी भलोप्रकार गान करती भई. और जो मंगलदायक वस्तु वाणी करके प्राप्त होने योग्य है, उसको अपने लिय नौ पवननान स्तोत्रों करके गाती भई, तब असुरों को मालूम हुआ कि देवता इस उद्गाता की सहायता करके हमारे ऊपर आक्रमण करेंगे इसलिये इस वाणीरूप उगाता के सामने जाकर उसको अपने पास अन करके वेधित कर दिया, तिसी कारण जो वह पाप है वही यह प्रत्यक्ष पाप है, जिस करके वाणी अयोग्य वचनों को बोलती है ॥ २ ॥ .
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