४०६ वृहदारण्यकोपनिषद् स० है । सम्बही । एष:-तुम्हारे विप है। शाकल्य- शाकश्य ! । एव-अवश्य । बदनुम पृष्ठो । + शाकल्यः-शाकाय ने। + श्राद-पूछा कि । तस्य-उसका । का-कौन । देवता देखना यानी कारण है। इति इस पर । यागवल्स्य:याश्यगाय ने। ह-स्पष्ट । उवाचकहा कि । प्रजाति:-प्रजापनि है। भावार्थ । हे याज्ञवल्क्य ! जिस पुरुष के रहने की जगह वार्य है, मन प्रकाश है, जो सबके अात्मा का परम थाश्रय है, उस पुरुष को जो जानता है, वह याज्ञवल्क्य ! निश्चय करके सबका ज्ञाता होता है, क्या आप उस पुरुष को जानते हैं ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया है शाकल्य ! जिस पुरुष को श्राप सबका परम थाश्रय करते हैं, उस पुरुष को मैं भली प्रकार जानना हूं, या ची पुनप जो तुम्हारे विपे स्थित है, और जो पुत्र बिरे स्थित है, है शाकल्य: और जो पूछना हो पूदो, मैं उत्तर देने को तैयार है. इस पर शाकल्य पूछते हैं कि उसका देवता कीन हैं ? श्राप कृपा कर बताइये, याज्ञवल्क्य ने कहा कि उमका देवता प्रजापति है ॥ १७॥ मन्त्रः १८ शाकल्येति होवाच याज्ञवल्क्यस्त्वा स्विदिमे ब्राह्मणा अङ्गारावतयणमक्रता ३ इति ।। पदच्छेदः। शाकल्य, इति, ह, उचाच, याज्ञवल्क्यः, त्वाम् , स्वित्, इमे, ब्राह्मणाः, अङ्गारावक्षयणम् , अक्रता, इति ॥
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४२०
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