४०२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० नम्-शरीर है। चक्षुः नेत्रगोलक । लोकःरहने की जगह है। मनः मन । ज्योति:-प्रकाश है। यः जो । सर्वस्य सब के। आत्मनःप्रात्मा का । परायणम्-परम आश्रय है। यःो । तम्-उस । पुरुषम्-पुरुष को । विद्यात्-जानता है । याज्ञ- वल्क्य हे याज्ञवल्क्य !। सः वैबह ही। वेदिता-सबका ज्ञाता। स्यात् होता है । + याज्ञवल्क्यः याज्ञवल्क्य ने । + आह= कहा । याजो। सर्वस्य-सब के । प्रात्मन:-मात्मा का । परायणम्-परम आश्रय है । + च और । यम्-जिसको । त्वम्-तुम । इति=ऐसा । आत्थ-कहते हो । तम्-उस । पुरुषम्-पुरुष को। अहम् =मैं। वेद- जानता हू। अयम् वही । पुरुषा-पुरुष । आदर्श-दर्पण विपे है। सः वही। एषः यह तुम्हारे बिपे है । + शा कल्य-हे शाकल्य ! । एव- अवश्य । वद-तुम पूछो । इति इस पर । + शाकल्यः शाक- ल्य ने ।+ पप्रच्छ-पूछा । तस्य-उस पुरुष का । देवता- देवता यानी कारण । का=कौन है ? । इति यह सुनकर । उवाच ह-याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट उत्तर दिया कि । असुः प्राण है। भावार्थ । जिस पुरुष का रूपही शरीर है, नेत्रगोलक रहने की जगह है, मन प्रकाश है, जो सबके आत्मा का परम आश्रय है, ऐसे पुरुष को जो जानता है, वह सबका ज्ञाता होता है । याज्ञ- वल्क्य ने उत्तरं दिया कि हे शाकल्य ! जो सबके आत्मा का परम आश्रय है, और जिसको तुम ऐसा कहते हो उस पुरुष को मैं भली प्रकार जानता हूं, वही पुरुष दर्पण बिषे है, वही पुरुष तुम्हारे विष है, हे शाकल्य ! जो कुछ पूछना हो पूछते चलो, मैं उत्तर दूंगा ऐसा सुन कर शाकल्य पूछते हैं
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