. बृहदारण्यकोपनिषद् स० मृतकं शरीर यज्ञ के योग्य फिर हो जाय, इसी करके मैं दूसरा शरीरवाला हाऊँ, उसके इस प्रकार सोचने पर वह जो मृतक शरीर प्रजापति का फूला था, उसमें वह प्रवेश कर गया, उसके प्रवेश करने से शरीर अचेत से सचेत हो गया, उसी शरीर विषे गया हुआ प्रजापति घोड़ा हो गया, यही अश्वमेध का अश्वमेधत्व है, यानी जो पहिले शरीर फूला हुआ और अपवित्र था, वही पीछे को प्रजापति के प्रवेश करने से पवित्र हो गया, इसलिये उसका नाम अश्वमेध पड़ा, क्योंकि प्रजापति अतिश्रेष्ठ और अतिपवित्र हैं, जो उपासक इस प्रकार अश्वमेधरूपी प्रजापति को जानता है, वहीं अवश्य अश्वमेध यज्ञ का ज्ञाता होता है, जो इस प्रकार उस प्रजापतिरूप अश्व को जानता है, वही अश्वमेध यज्ञ को जानता है, यहाँ द्वितीय बार कहने से गुरु शिष्य को निश्चय कराता है कि वही अश्वमेध यज्ञ का ज्ञाता होता है जो भली प्रकार अश्व- मेधरूप प्रजापति को जानता है, और दूसरा कोई नहीं हो सकता है, पुनः वह प्रजापति ऐसी इच्छा करता भया कि जो छूटा हुआ घोड़ा है वह विना किसी रुकावट के एक वर्षपर्यन्त चारो दिशाओं में घूमता रहे, ऐसा ही किया भी गया, जब घोड़ा वापिस लाया गया, तब उसने अग्नि में अपने लिये समर्पण किया, और उसके साथ बहुतेरे पशुओं को भी अन्य देवताओं के लिये यानी इन्द्रियादि देवताओं के लिये संप्रदान किया, इसलिये सब देवताओं का आवाहन किया गया है जिसमें ऐसे पवित्र किये हुए प्रजापतिरूप घोड़े को इदानींकाल के यज्ञकर्ता पुरुष भी यज्ञ विषे संप्रदान करते हैं, हे शिष्य ! जो प्रकाशमान सूर्य दिखाई देता है, वहीं . . -
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