अध्याय ३ ब्राह्मण ८ .. हुचे । इति इस प्रकार । तिष्ठन्ति-स्थित हैं । गार्गि हे गार्गि!। एतस्य-हसी । अक्षरस्य-अक्षर के । प्रशासने याज्ञा में । नद्यः कुछ नदियां । श्वेतेभ्यः-श्वेत यानी बरफवाले। पर्व- तेभ्यः-पहाड़ों से निकल कर । प्राच्या पूर्व दिशा को। स्यन्दन्ते बहती हैं। श्रन्या: कुछ नदियां । प्रतीच्या पश्चिम दिशा को । + स्यन्दन्ते-बहती हैं। याम्-जिस । याम्-जिस । दिशम् दिशा को । अनु-जाती हैं । + ताम्-उस । + ताम्- उस । दिशम्-दिशा को । न-नहीं । व्यभिचरन्ति छोड़ती है । गार्गि हे गागिं !। वै-निश्चय करके । एतस्य इसी। अक्षरस्य अक्षर की। प्रशासनेप्राज्ञा में । मनुप्या मनुष्य । ददतः दान देनेवालों की ।' प्रशंसन्ति प्रशंसा करते हैं। +च-और । देवा:-देवता । यजमानम् यजमान के । अन्धा- यत्ता:-अनुगामी होते हैं।+ चोर । पितर:-पितरलोग। दीमद:होम के। अन्वायत्ता-धाधीन होते हैं। भावार्थ । याज्ञवल्क्य कहते हैं, हे गार्गि ! इसी अक्षर की आज्ञा से सूर्य और चन्द्रमा नियमित होकर स्थित हैं, इसी अक्षर की आज्ञा से धुलोक और पृथ्वीलोक नियमित होकर स्थित हैं, हे गार्गि ! इसी अक्षर की आज्ञा से निमेष, मुहूर्त, दिन, रात, मास, अर्धमास, ऋतु, संवत्सरादिक नियमित होकर स्थित है, हे गार्गि ! इसी अक्षर की आज्ञा से कोई कोई नदियां बरफवाले पहाड़ से निकल कर पूर्व को बहती हैं, और कोई कोई नदियां पश्चिम को भी बहती हैं, इसी अक्षर की आज्ञा को पा करके जिस जिस दिशा को जो जो नदियां वहती हैं उस उस दिशा को वह नहीं छोड़ती हैं, हे गाणि.! .
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