अध्याय ३ ब्राह्मण - ३६५ अपरस्मै दूसरे प्रश्न के लिये । धारयस्व-अंपने को तैयार करो । इति-ऐसा +श्रुत्वा-सुनकर । + याज्ञवल्क्यः- याज्ञवल्क्य ने | + आह-कहा कि । गार्गि-हे गार्गि! पृच्छ- इति-तुम पूछो। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराजा समीचीन उत्तर को सुनकर गार्गी अति प्रसन्न हुई, और विनयपूर्वक बोली कि, हे याज्ञवल्क्य ! आपको मेरा नमस्कार है, आपने मेरे पहिले प्रश्न का उत्तर विशेषरूप से व्याख्यान किया है, मेरे दूसरे प्रश्न के लिये आप अपने को दृढ़तापूर्वक तैयार करें, गार्गी के इस वचन को सुनकर याज्ञवल्क्य कहते हैं, हे गार्गि.! तुम अपने दूसरे प्रश्न को भी पूछो, मैं उत्तर देने को तैयार हूँ॥ ५ ॥ 'मन्त्रः६ साहोवाच यच याज्ञवल्क्य दिवो यदवाक् पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच्च भविष्य- च्चत्याचक्षते कस्मिस्तदोतं च पोतं चेति । पदच्छेदः । सा, ह, उवाच, यत्, ऊर्ध्वम् , याज्ञवल्क्य, दिवः, यत्, अवाक् , पृथिव्याः, यदन्तरा, द्यावापृथिवी, इमे, यत् , भूतम्, च, भवत्, च, भविष्यत् , च, इति, आचक्षते, कस्मिन् , तत् , ओतम् , च, प्रोतम् , च, अन्धय-पदार्थ । सा-वह गार्गी । ह-स्पष्ट । उवाच-बोली कि । याज्ञवल्क्य- है याज्ञवलंय !। दिवा=युलोक से । यत्-जो। ऊर्ध्वम् ऊपर . इति ॥
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