. ३६४: बृहदारण्यकोपनिषद् स० नीचे है । यदन्तरा-जिसके बीच में । इमे-ये । द्यावा. पृथिवी-धुलोक और पृथ्वी लोक हैं । यत्-जिसको । पुरुषा=पुरुप । भूतम्-भूत । भवत्-वर्तमान । भविष्यत् भविष्यत् । इति:करके । श्राचक्षते-कहते हैं । तत्-वह सब । आकाशे-प्राकाश में । श्रोतम्-श्रोत । चोर । प्रोतम्-प्रोत है । इति ऐसा उत्तर दिया । भावार्थ । गार्गी के प्रश्न को सुनकर याज्ञवल्क्य महाराज बोले हे गार्गि ! जो द्युलोक के ऊपर है, जो पृथ्वीलोक के नीचे है, और जो धुलोक और पृथ्वीलोक के मध्य में है, और जिसको विद्वान् लोग भूत, वर्तमान, भविष्यत् नाम करके कहते हैं वह सब आकाश में प्रथित हैं अर्थात् आकाश में ओतप्रोत हैं, हे गार्गि ! यह तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है ॥ ४ ॥ मन्त्रः ५ सा होवाच नमस्तेऽस्तु याज्ञवल्क्य यो म एतं व्यवोचोऽपरस्मै धारयस्वेति पृच्छ गार्गीति ॥ पदच्छेदः। सा, ह, उवाच, नमः, ते, अस्तु, याज्ञवल्क्य, यः, मे, एतम् , व्यवोचः, अपरस्मै, धारयस्व, इति, पृच्छ, गार्गि, इति । अन्वय-पदार्थ। सा-वह गार्गी । ह-फिर स्पष्ट । उवाचकहती भई कि । याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य ! ते-धापके लिये। नमा-नमस्कार। अस्तु होवे । या जिसने । मे मेरे । एतम्-इस प्रश्न को । व्यवोचः यथायोग्य कहा । + अधुना-अव ।+मम-मेरे ।
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