1 ३५८ बृहदारण्यकोपनिषद् स एषः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः, अतः, अन्यत्, आर्तम् , ततः, ह, उद्दालकः, पारुणिः, उपरराम ।। अन्वय-पदार्थ । या जो । रेतसिब्बीर्य में । तिष्ठन् =स्थित है। + या जो। रेतसाम्धीर्य के । अन्तर: बाहर है । यम्-जिसको। रेत:- वीयं । न-नहीं। वेद-मानता है । यस्य-जिसका । शरीरम्- शरीर । रेतःचीर्य है । याजो । अन्तर:-योर्य में रह कर । रेता वीर्य को । यमयति=नियमबद्ध करता है । एपः वही। ते-तेरा । श्रात्मा-मात्मा । अमृता अविनाशी अमृतस्वरूप है। + एप: यही । अष्टः अदृष्ट होता हुधा । द्रष्टाअष्टा + एप:-यही । अश्रुतः अश्रुत होता हुया । श्रोता-श्रोता है। एप:न्यही । अमत:-प्रमत होता हुआ । मन्ता-मन्ता है यानी मनन· करनेवाला है । + एषः यही । अविज्ञात:अविज्ञात होता हुआ । विज्ञाताविज्ञाता है । अतः इससे । अन्यः अन्य कोई । द्रष्टाव्रष्टा । न-नहीं। अस्ति है। अतः इससे । अन्य अन्य कोई । श्रोता-श्रोता । न-नहीं । अस्ति है। अतः इससे । अन्यः अन्य कोई । मन्ता-मन्ता । न-नहीं। अस्ति-है। अत: इससे । अन्यः अन्य कोई । विज्ञाता:- विज्ञाता । न-नहीं । अस्ति है । + एपान्यही । ते-तेरा। अमृता अविनाशी । अात्मा-मात्मा । अन्तर्यामी-अन्तर्यामी है। अतः इससे । अन्यत्-पृथक् और सब । आर्तम्-दुःख- रूप है। ततः ह इसके पीछे स्पष्ट । पारुणिः अरुण का पुत्र । उहालका-उद्दालक । उपरराम-चुप होता भया । भावार्थ। जो वीर्य के भीतर बाहर स्थित है, जिसको वीर्य नहीं
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