३५६ बृहदारण्यकोपनिषद् स० त्वचम्-त्वचा को । यमयति-नियमबद्ध करता है। एषः वही। तेरा । अमृतः सविनाशी । श्रात्माघारमा । अन्तर्यामी अन्तर्यामी है। भावार्थ । जो त्वचा के भीतर वाहर रहता है, जिसको त्वचा नहीं जानती है, जो त्वचा को जानता है, जिसका शरीर त्वचा है, जो त्वचा के भीतर बाहर रह कर त्वचा को शासन करता है, जो आपका आत्मा है, जो अमृतस्वरूप है, यही वह अन्तर्यामी है ॥ २१ ॥ मन्त्रः २२ यो विज्ञाने तिष्ठन्धिज्ञानादन्तरो यं विज्ञानं न वेद यस्य विज्ञान, शरीरं यो विज्ञानमन्तरो यमयत्येप त आत्मान्तर्याम्यमृतः॥ पदच्छेदः। यः, विज्ञाने, तिष्ठन् , विज्ञानात् , अन्तरः, यम् , विज्ञा- नम् , न, वेद, यस्य, विज्ञानम् , शरीरम् , यः, विज्ञानम् , अन्तरः, यमयति, एपः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ॥ अन्वय-पदार्थ । यःजो । विज्ञान-विज्ञान में । तिष्ठन्-स्थित है। याओ। विज्ञानात्-विज्ञान के । अन्तर:=पाहर है । यम्-जिसको। विज्ञानम्-विज्ञान । न=नहीं । वेद-जानता है । यस्य- जिसका । शरीरम् शरीर । विज्ञानम्-विज्ञान है । यःजो । अन्तरः-विज्ञान में रह कर । विज्ञानम्-विज्ञान को । यम-
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