1 ३५४ वृहदारण्यकोपनिपद स० श्रोत्रात् कणं के । अन्तर: याहर है। यम-जिमको श्रोत्रम् फगं । नन्नहीं । वेदानना है। यम्य-शिपका शरीरमा शरीर । श्रीप्रम्हगं है । यामी। श्रन्तर अध्यनर रहकर । श्रोत्रम् कणं को । यमयनि-नियमय करना एपःची । मेरा । अमृतः प्रविनाशी । श्रान्मा-माना । अन्तर्यामी अन्तर्यामी है। भावार्थ। जो श्रोत्र के श्रभ्यन्तर स्थित है, जो श्रोत्र के बाहर स्थित है, जिसको श्रोत्र नहीं जानता है, जो श्रोत्र को जानता है, जो श्रोत्र के अभ्यन्तर और बाहर स्पिन दोकर श्रोतको शासन करता है, जो श्राप का श्रात्मा है, जो अमृतत्वप है, यही वह अन्तर्यामी है ॥ १६॥ मन्त्रः २० यो मनसि तिष्ठन्मनसोऽन्तरो यं मनो न वेद यस्य मनः शरीरं यो मनोऽन्तरो यमयत्येप त आत्मान्तर्या- म्यमृतः ॥ पदच्छेदः। मनसि, तिष्ठन्, मनसः, यः, अन्तरः, यन्, मनः, न: वेद, यस्य, मनः, शरीरम् , यः, मनः, थन्तरः, यमयति, एपः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ।। अन्वय-पदार्थ। या जो । मनसि-मन में । तिष्ठन्-स्थित है। + यो । मनसा मन के । अन्तरः बाहर है। यम्-जिसको । मनः-
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