बृहदारण्यकोपनिषद् स० यजेय-यज्ञ करूं । इति ऐसी । सः वह प्रजापति । अकाम- यत-इच्छा करता भया । तदा तव । + लोकवत्-साधारण मनुष्य की तरह । सःवह प्रजापति । अथाम्यत्-थक गया । +च और । सःवह । तपः अतप्यत-दुःखित होता भया । +ततः तत्पश्चात् । श्रान्तस्य-थके हुए । ततस्यकेशित । तस्य-इस प्रजापति का । यशः यश यानी प्राण । च=और । वीर्यम्बल । उदक्रामत् उसके शरीर से निकलता भया । प्राणा:प्राण ही । बैंनिस्संदेह ।+शरीर-इस शरीर में । यशः= यश । + च=और । वीर्यम्बल है 1 + तेपु-तिम । प्राणपु प्राण के । उत्क्रान्तेपु-निकल जाने पर । तत्-प्रजापति का वह शरीर । श्वयितुम् अधियत-फूल गया । + परन्तु-परन्तु । तस्य-तिस प्रजापति का । मन:-मन । शरीरे एव ठसी मृतक शरीर में । आसीत्-लगा था। भावार्थ । हे सौम्य ! जब बड़े भारी यज्ञ करने की प्रजापति ने इच्छा किया तो उसके सामग्री के एकत्र करने में और विधान के सोचने में बहुत अमित हुआ, यानी उसको परिश्रम करना पड़ा, और दुःखित भी हुआ, तत्पश्चात् उस थके हुए लेशित खेद को प्राप्त हुए प्रजापति के शरीर से यश और बल दोनों निकल गये, यश ही निःसन्देह प्राण है, और बल इन्द्रिय है, इन्द्रियबल से मतलब कर्म इन्द्रिय, और ज्ञान इन्द्रिय हैं, शरीर में यही दो यानी प्राण और इन्द्रिय मुख्य हैं, जब ये दोनों निकल गये, प्रजापति का मृतक शरीर फूल आया, परन्तु उसका चित्त अथवा मन उसी मृतक शरीर में लगा रहा ॥ ६ ॥ .
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