अध्याय ३ब्राह्मण ७ ३४५ दिग्भ्यदिशाओं के। अन्तर: बाहर है। यम्-जिसको । दिशा-दिशायें । न-नहीं । विदुःजानती हैं । यस्य-जिसका । शरीरम्-शरीर । दिशा-दिशायें हैं। याजो। अन्तरम् दिशाओं के भीतर रहकर । दिशा-दिशाओं को। यमयति- नियमबद्ध करता है। एषः वही । ते-तेरा । अमृतः अविनाशी । आत्मा-मात्मा । अन्तर्यामी-अन्तर्यामी है। भावार्थ। जो दिशाओं के अभ्यन्तर रहता है, जो दिशाओं के बाहर है, जिसको दिशायें नहीं जानती हैं, जो दिशाओं को जानता है, जिसका शरीर दिशायें हैं, जो दिशाओं के भीतर बाहर स्थित होकर दिशाओं को शाप्तन करता है, जो आपका आत्मा है, जो अमृतरूप है, यही वह अन्त- यामी है ॥ १० ॥ मन्त्रः ११ यश्चन्द्रतारके तिष्ठश्चन्द्रतारकादन्तरोयं चन्द्रतारक न वेद यस्य चन्द्रतारक शरीरं यश्चन्द्रतारकमन्तरो यमयत्येप त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः॥ पदच्छेदः। यः, चन्द्रतारके, तिष्ठन् , चन्दतारकात्, अन्तरः, यम् , चन्द्रतारकम् , न, वेद, यस्य, चन्द्रतारकम् , शरीरम् , यः, चन्द्रतारकम् , अन्तरः, यमयति, एषः, ते, आत्मा, अन्त- र्यामी, अमृतः॥ अन्वय-पदार्थ। या जो। चन्द्रतारके-चन्द्रतारों में। तिष्ठन्-स्थित 1
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